एक अभिलाषा
स्वप्नों की भाषा
मैं भी पढूं, तुम भी पढो
लम्बा सफ़र हो
लक्ष्य पर नज़र हो
नयनों के भौन में
शब्दों के मौन में
मिलने की चाह लिए
हंसी या आह लिए
फूलों की बांह में
काँटों की राह में
मैं भी बढूँ, तुम भी बढो
बुलंदी की आस में
ऊँचे आकाश में
पंखों की थिरकन
फिर वही भटकन
मंजिल की चाह लिए
धूप या छांह लिए
दुर्गम डगर पर
ऊँचे शिखर पर
मैं भी चढूं, तुम भी चढो
दूर बियाबान में
कहीं सुनसान में
सोचों को संग लिए
मलिनता के रंग लिए
बैठ चुपचाप में
कहीं अपने-आप में
शाम- सवेरे
बिम्ब तेरे, मेरे
मैं भी गढूं, तुम भी गढो
शमा-ए-हरम हो या दिया सोमनाथ का !
14 वर्ष पहले
7 टिप्पणियां:
एक अभिलाषा
स्वप्नों की भाषा
मैं भी पढूं, तुम भी पढो
लम्बा सफ़र हो
लक्ष्य पर नज़र हो
नयनों के भौन में
शब्दों के मौन में
मिलने की चाह लिए
हंसी या आह लिए
फूलों की बांह में
काँटों की राह में
मैं भी बढूँ, तुम भी बढो
बहतरीन खुबसूरत प्रेरणा देती हुई रचना लिखी है आपने जाकिर ...जो दिल को छूती हुई अभिभूत कर देती है ..बधाई इस सुंदर रचना के लिए
मैं भी चढूं, तुम भी चढो
दूर बियाबान में
कहीं सुनसान में
सोचों को संग लिए
मलिनता के रंग लिए
बैठ चुपचाप में
वाह जाकिर .....बेहद खूबसूरत......
लम्बा सफ़र हो
लक्ष्य पर नज़र हो
नयनों के भौन में
शब्दों के मौन में
मिलने की चाह लिए
"bhut sunder bhavnatmk poetry hai, bhut pasan ayee"
Regards
मिलने की चाह लिए
हंसी या आह लिए
फूलों की बांह में
काँटों की राह में
मैं भी बढूँ, तुम भी बढो
बहुत ही सुन्दर कविता हे, धन्यवाद
वाह ! एक नयापन लिए खूब सूरत शब्द पिरोये हैं आपने !
खूबसूरत फैंटेसी, खूबसूरत उडान। आपकी इस सोच को मेरा सलाम।
are bhai maza aagaya
likhte raho bas
khoob dua hai meri
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