मंगलवार, 30 सितंबर 2008

ईद और नवरात्र की बधाई

ईद १ या २ तारीख को है. मैं घर जा रहा हूँ जो एक गाँव में है. सभी दोस्तों से ईद के बाद ही वार्तालाप होगा. इसलिए सभी को................
ईद और नवरात्र की मुबारकबाद.
साथ ही सभी से इल्तिजा है कि त्योहारों के इस पवन अवसर पर दुआ करें कि देश में आपसी सोहार्द और भाईचारा कायम रहे. अनेक हो कर भी हम एक रहें........................... आमीन

बुधवार, 24 सितंबर 2008

बयार बन कर

(इन दिनों आतंकवादी घटनाएँ लगातार बढती जा रही हैं. देश के बड़े-बड़े शहर उनके निशाने पर हैं. दिल्ली में भी उन्होंने कहर बरपा किया. इसी कारण मन बेहद क्षुब्द रहा. नेट पर जाने या ब्लॉग खोलने का मन भी नहीं किया. लेकिन ज़ख्मों को भुलाना ही पड़ता है. और दोस्तों की महफिल हमेशा मरहम का काम देती है, सो फिर आपकी महफिल में आ पहुंचा हूँ.
खैर.......... इस बार फिर अपनी पत्रकार मित्र सुनीता सैनी की कविता से रु-ब-रु करा रहा हूँ. वही सुनीता जो पिछली बार चिडिया बन कर उड़ जाना चाह रही थीं, इस बार देखिये क्या बनने की चाहत रखती हैं.............. जाकिर )



बयार बन कर
मैं बहना चाहूं
गाँव की महकती मिटटी में
रहना चाहूं
फूलों के संग खेलूँ
कलियों से बतियाऊं
लहराते खेतों सा लहराऊं
बादलों में मैं उड़ जाऊँ
नदियों का संग ले लूं
सरसों से रंग ले लूं
बहते-बहते
तुम्हारे घर आँगन जा पहुंचू
सोया हो जब तू खेतों में
लहराते-सरसराते हुए
चुपके से तुझको छु लूं
मस्त-मगन इस मौसम में
मतवाली बयार बन मैं घूमूं

मंगलवार, 9 सितंबर 2008

नए ज़माने की लड़की

(परिवर्तन जीवन का नियम हैं. चाहे हम किसी परिवर्तन के खिलाफ हों या उसके तरफदार. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. बदलाव चलते रहते हैं. ये ही प्रकृति का नियम है, ये ही जीवन की गति. ऐसे ही एक परिवर्तन को कलमबंद किया है मैंने. उसकी अच्छाई-बुराई हमारी अपनी सोचों पर निर्भर करती है...... जाकिर)

पहली बार
किसी लड़के से
अकेले में मिलने पर
अब उस सोलह साला लड़की का
दिल नहीं धड़कता
न अब उसकी पलकें भारी होती हैं
न चेहरा शर्म से गुलनार
न अब वो मुस्कुराके
अंगुली पर दुपट्टा लपेटती है
न नज़रें नीची किये
अंगूठे से ज़मीन कुरेदती है
शब्द भी
अब उसके गले में नहीं अटकते
वह नए ज़माने कि लड़की है
नए ढंग से प्यार करती है

सोमवार, 1 सितंबर 2008

अभिलाषा

एक अभिलाषा
स्वप्नों की भाषा
मैं भी पढूं, तुम भी पढो
लम्बा सफ़र हो
लक्ष्य पर नज़र हो
नयनों के भौन में
शब्दों के मौन में
मिलने की चाह लिए
हंसी या आह लिए
फूलों की बांह में
काँटों की राह में
मैं भी बढूँ, तुम भी बढो
बुलंदी की आस में
ऊँचे आकाश में
पंखों की थिरकन
फिर वही भटकन
मंजिल की चाह लिए
धूप या छांह लिए
दुर्गम डगर पर
ऊँचे शिखर पर
मैं भी चढूं, तुम भी चढो
दूर बियाबान में
कहीं सुनसान में
सोचों को संग लिए
मलिनता के रंग लिए
बैठ चुपचाप में
कहीं अपने-आप में
शाम- सवेरे
बिम्ब तेरे, मेरे
मैं भी गढूं, तुम भी गढो