ग्रामीण मुस्लिम परिवार में पैदा होने के कारण कभी होली खेल तो नहीं पाया लेकिन होली के हुड दंग खूब देखे। बचपन में मन में ये सवाल ज़रूर उठता कि हम ये त्यौहार क्यों नहीं मनाते। अलग-अलग रंगों से लिपे-पुते चेहरे बहुत अच्छे लगते थे। मन करता में भी दोस्तों की टोली में भाग कर खूब-खूब होली खेलूँ। उस वक्त हमारे गावं की होली होती भी मजेदार थी।
होली से लगभगएक महीने पहले से ही गावं में शाम ढले होली गायन शुरू हो जाता। गावं के एक किनारे बने शिव मन्दिर में कई टोलियाँ जमा हो जाती और देर रात तक जमी रहतीं। फ़रवरी की गुलाबी सर्द रातों में रजाई में दुबके हुए दूर से आती स्वर लहरियों को सुनते कब नींद आ जाती, पता ही नहीं चलता था।
होली से एक हफ्ते पहले तो हालत पूरी तरह रोमांचक हो जाते थे। ये समय होता लठमार होली का। (कुछ कुछ मथुरा जैसी। दरअसल हमारा गावं यादव बहुल है, इस लिए होली में राधा-कृष्ण वाले रंग देखने को मिल जाते थे) इन दिनों गावं की महिलायें, पुरुषों पर भारी होती। अजब नज़ारा होता। शाम के समय पुरुषों की टोलियाँ निकलती और महिलाएं उन पर लकड़ी-डंडों से वार करतीं। कुछ पुरूष तो मार खाने में मशहूर थे। खूब पिटते और हँसते। सब कुछ प्यार भरा, रसमय और जादुई।
फ़िर आता रंग यानी धुलेंडी का दिन। सवेरे-सवेरे खेतों का काम निपटा कर रंगबाजी के लिए सब तैयार हो जाते। लेकिन रंग कहीं नहीं होता था। पानी में घुला गोबर, राख और कीचड़। हम अपने घर से इस रंगबाजी का नज़ारा देख कर मज़े में हँसते रहते। लगभग ४ बजे के बाद होती असली धुलेंडी। लोगबाग गावं के एक किनारे (जहाँ एक दिन पहले होली जलाई जाती) जमा हो जाते। झांकियां निकलती । लकड़ी के घोडे सजाये लोग आते और नाचते। पूरी सात टोलियाँ होती। हर मोहल्ले की एक टोली। हर टोली की अलग गायक मण्डली और अलग किस्से।
अलग-अलग करतब। कोई महिला के कपड़े पहन कर नाच रहा है तो कोई सर पर अंगीठी रखे कुछ पका रहा है। आस-पास के घरों की छतें महिलाओं और बच्चों से भरी रहतीं। हवा में खूब अबीर-गुलाल उड़ता। (बस इसी समय असली रंग का इस्तेमाल होता) । पूरा आसमान रंगों से भरा होता। तब मेरी इच्छा अपने आप पूरी हो जाती ।
इस मेले को देखने मुस्लिम परिवार भी आ जाते। आस-पास के गावं भी आते। होली की परिक्रमा के बाद ये जश्न समाप्त होता। मुझे फ़िर अगली होली का इंतज़ार होता।
लेकिन अब गावं की ये होली समाप्त हो चुकी है। सिर्फ़ रंग और दारु ही बची है।
अगर होली पर गावं में होता हूँ तो शाम को उस होली चौक तक ज़रूर जाता हूँ। इस इंतज़ार में की शायद कोई एक मण्डली ही इस बार पहले जैसी होली मनाने आई हो । दिल चाहता है काश! वो होली फ़िर लौट आए तो इस बार मैं ज़रूर खेलूँगा।
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आप सब को होली की बहुत-बहुत बधाई !
पेश है होली पर किसी ख़ास के लिए लिखी गई कविता।
आओ हमदम खेलें होली
मैं तेरे चेहरे पर रंग दूँ
अपने चुम्बन के सारे रंग
तुम भी अपने प्रेम रस से
भिगो डालो मेरा हर एक अंग
रंग छूटे न, रस सूखे न
आयें-जाएँ कितनी होली
आओ हमदम खेलें होली
मैं भी अपने आलिंगन की
आओ भंग खिला दूँ तुमको
तुम अपने होटों की थोडी
दारु आज पिला दो मुझको
मस्ती और नशे का आलम
दुआ करो कभी होवे न कम
बिछड़ के गुजरें जितनी होली
आओ हमदम खेलें होली