
जबकि
दिन
अपनी आँखें बंद कर चला
अंधेरे चार सूँ निकल पड़े हैं
जबकि
सभी
नर्म बिस्तर की पलकों में
हसीं ख़्वाबों से लिपटे पड़े हैं
जबकि
शौरोगुल
खामोशियों की आगोश में
बेखबर सोये पड़े हैं
जबकि
चाँद
आसमानी नदी में बहने लगा है
सितारे खिलखिला पड़े हैं
तब
आवारा परिंदा-सा भटकता है मन
आवारा खलाओ में, आवारा उम्मीदें लिए.....
7 टिप्पणियां:
बहुत खूब इस आवारा मन के मालिक कबीले तारीफ हैं ....
अनिल कान्त
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
Man waqayi aawara hai
kya chhaiye nahi pata
bahut alag bahut achha bahut gahra
आवारा परिंदा-सा भटकता है मन
आवारा खलाओ में,आवारा उम्मीदें लिए
बहुत खूब बढ़िया रचना.
bahut sunder rachana
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आवारा परिंदा-सा भटकता है मन
आवारा खलाओ में, आवारा उम्मीदें लिए.....
मन की भावनाओं का दिलकश बयां। मुबारकबाद कुबूल फरमाऍं।
बहुत खूब।
पर काफी समय से नयी रचनाओं की प्रतीक्षा है।
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