बुधवार, 20 अगस्त 2008

वो लड़की

वो लड़की, वो पागल दीवानी-सी लड़की
वो किस्सों में लिपटी कहानी-सी लड़की
वो खेतों में चढ़ती दुपहरी का साया
वो शामों की अल्हड जवानी-सी लड़की
गोबर, पसीने की खुशबू से लथ-पथ
वो पनघट के गीतों की रानी-सी लड़की
मेरी खातिर मौसम की तरह बदलती
वो बर्फ, वो आग, वो पानी-सी लड़की
तालों में खिलती हुई एक कँवल-सी
वो नदियों-सी बहती तूफानी-सी लड़की
अंधेरों में जुगनू की मानिंद चमकती
जमीं पर उतरती आसमानी-सी लड़की
'जवाहर' नक्श आज तक है ज़हन पर
वो ज़ख्मों की हल्की निशानी-सी लड़की

रविवार, 10 अगस्त 2008

छोटी सी आशा


इस बार प्रस्तुत है एक पत्रकार मित्र सुनीता सैनी की कविता.
दिल्ली में जन्मी और पली-बढ़ी सुनीता उस वर्ग से आती हैं, जहां संघर्ष ज्यादा और प्राप्ति कम होती है. जहाँ रस्ते बने बनाये नहीं मिलते बल्कि बनाने पड़ते हैं. और अपने लिए रास्ते बनाने के संघर्षों ने ही उन्हें दूसरो से अलग बनाया है. इस से उन्हें एक नयी उर्जा मिली है कुछ अलग करने की.
दिल्ली के एक हिंदी दैनिक में पत्रकार सुनीता की कविताएँ पूरी तरह व्यक्तिगत होते हुए भी कई बार बरबस ही अभिभूत कर जाती हैं................. जाकिर हुसैन.




काश!
मैं कोई चिडिया होती
जहाँ-तहां मैं उड़ती फिरती
कभी धरती
कभी आकाश
मन चाही उडान मैं भरती
कभी होती मैं अपने पास
और कभी तुम्हारे पास
तुमसे बतियाती
तुम्हारे आँगन में इठलाती
कभी होती तुम्हारे घर की दीवारों पर
कभी तुम्हारी खिड़की चौबारों पर
टेबल पर तुम्हारी होती
और कभी किताबों पर
कोई मजबूरी
या बंदिश की डोरी
तब फिर मुझे बांध न पाती
मन चाहता तो साया बनकर
हर पल संग तुम्हारे आती
तुम्हारा घर आँगन होता
मेरा घर आँगन
तुम्हारा जीवन होता मेरा जीवन
मैं तुझमें ही जीती रहती
काश!
मैं कोई चिडिया होती

गुरुवार, 7 अगस्त 2008

मेरा विकास


गाँव से,
शहर
घर से,
कमरा
खेत की मेंड से,
पार्क की बेंच
मेल-जोल से,
फोन कॉल
ख़त से,
एस एम एस
बस!! इतना भर विकास किया है मैंने